Friday, March 20, 2009

पापा के बीना अब क्या है .....



कैसे रहू पापा के बीना
कैसे सोचु पापा के बीना
कैसे हाशु पापा के बीना
कोसी बातिएँ करू पापा की बीना
किस्से बातिएँ करू पापा के बीना
कैसे खुशी पाहून पापा के बीना
कन है अपना पापा आपके के बीना
आप है तो सारा जहाँ है अपना
आप नही तो कुछ नही .......
एक खामोशी ,एक अकेलापन ।
हार बात पे बात होते है की आप होते तो ये होता आप होते तो वो होता ...पापा आप कहा हो जल्दी से आ जाओ

वो हँसी कहा है , अब वो खिलखिलाहट कहा ,
वो माहोल कहा है , वो खुशिय का धमाल कहा है
वो अपनापन वो पयार कहा है
वो लोगो का मजमा ,वो आवाजो की धूम कहा है
वो भजन कीर्तन की लयकारी कहा है
वो लोक गीतों और कथयोऊ का कथाह्कार कहा है
वो बार बार जय गुरु का रह्टन कहा है
वो पर्कृति के सौन्ध्रिय को स्राहरने वाला कहा है
वो श्मर्तियो को सवारने वाला कहा है
वो आशीर्वाद के लिये हर दम हाथ उठतऐ वो अब्ब कह है
वो खुशियों को चार चाँद लगाने वाले मेरे पापा अब्ब कहा है .........

Tuesday, February 17, 2009

मैं और मेरे पापा

यह कविता मैंने मेरे पापा के लिये लिखी है -
देखती हू बंद अखो में उनको , बहुत बाते कर लाती हू
खोलती हू इन दोनों आखो को जब भी ,अशुओ की धार में कब बह जाती हो .......
न आखो की जुबा ,न आशूओ की
मन ही मन की जुबा मन ही मन से कर लेती हू मैं
हर स्वप्न लेती हू उनका कुछ तो कहा था रात के अधेरे में
सुबह होने जाने पर हाथ मलती हू......
कितनी बातें हम करते थे ,अखो के खुलने पर वो स्वपन ही तो थे .....
आखें बंद कीतनी निर्जल कीतनी शांत और शीतल
अखो का खुलना दुनियादारी सिखा है
अखे बंद तो मिर्त्यु की शांत बेला ,खुली आखें जीवन का रेला .........क्या ये ही है मेरे
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और मेरी पापा का जीवन