Tuesday, February 17, 2009

मैं और मेरे पापा

यह कविता मैंने मेरे पापा के लिये लिखी है -
देखती हू बंद अखो में उनको , बहुत बाते कर लाती हू
खोलती हू इन दोनों आखो को जब भी ,अशुओ की धार में कब बह जाती हो .......
न आखो की जुबा ,न आशूओ की
मन ही मन की जुबा मन ही मन से कर लेती हू मैं
हर स्वप्न लेती हू उनका कुछ तो कहा था रात के अधेरे में
सुबह होने जाने पर हाथ मलती हू......
कितनी बातें हम करते थे ,अखो के खुलने पर वो स्वपन ही तो थे .....
आखें बंद कीतनी निर्जल कीतनी शांत और शीतल
अखो का खुलना दुनियादारी सिखा है
अखे बंद तो मिर्त्यु की शांत बेला ,खुली आखें जीवन का रेला .........क्या ये ही है मेरे
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और मेरी पापा का जीवन